और जब जीवन से जुड़े गहन प्रश्नों की बात आयी तो साहिर का साहिर( जादू) ‘ ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानो, और ‘ये पाप है क्या और पुन्य है क्या रीतों पर धर्म के मोहरें हैं’ जैसी दार्शनिक और ‘ मन रे तू कहे न धीर धरे’ जैसी उदात्त शायरी और कभी ‘तार्रुफ रोग हो जाये तो उसको भूलना बेहतर , ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोडना अच्छा’ जैसे परिपक्व विचार के रूप में सामने आया.
हिन्दुस्तान की गंगा जमुनी तहजीब को जहाँ उनकी कलम ने ‘अल्लाह तेरो नाम इश्वर तेरो नाम’ और ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा’ जैसे अनमोल रतन दिए वहीँ सामाजिक सरोकारों और देश और काल की स्थिती पर जब व्यंगबाण चलने की बारी आयी तो साहिर ‘चीन ओ अरब हमारा, रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा’ और आसमां पे है खुदा और ज़मीं पे हम, आज कल वो इस तरफ देखता है कम’ लिखने से भी नहीं चूके. मानवीय रिश्तों की जिस कोमलता से साहिर ने ‘ मेरे भैय्या को संदेसा पहुँचाना रे चंदा तेरी जोत बढे’ लिख कर छुआ वो बेमिसाल है.
और उनके लिखे ‘ जब जब कृष्ण की बंसी बाजी निकली राधा घर से, जान अजान का भेद भुला के लोक लाज को तजके, बन बन भटकी जनक दुलारी पहन के प्रीत की माला, दर्शन जल की प्यासी मीरा पी गयी विष का प्याला और फिर अर्ज करी के लाज राखो राखो राखो’ और ‘इन्तहा ये के बंदे को खुदा करता है इश्क’ शब्दों ने फ़िल्मी कव्वाली को अमर बना दिया.