Sunday, October 24, 2010

साहिर का जादू

‘दुनिया ने तजुर्बात ओ हवादिस की शक्ल में , जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं’ साहिर ने अपने दीवान ‘तल्खियाँ’ की शुरुआत में ये दो लाइनें लिखीं. ताजिंदगी हवादिस के ये तज़ुर्बे और तल्खियों की खराशें उनकी शायरी के साथ रहीं, और जब ये खराशें बहुत गहरे चुभतीं तो उनकी कलम ‘ जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं’ लिखती. ‘मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी यशोदा की हम जिंस राधा की बेटी, पयम्बर की उम्मत जुलेखा की बेटी, जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं’ जैसी बात साहिर के अलावा और कोई नहीं कह सकता था. इन तल्ख़ तजुर्बों ने ही उनसे लिखवाया ‘ ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल, ये मुनक्कश दर ओ दीवार ये मेहराब ये ताक, एक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक, मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे’. लेकिन वक्त के साथ जैसे जैसे तल्खियाँ कम हुईं, जिंदगी कुछ आसान हुई तो शायर की कलम खराशों की जगह कोमल कोमल भावनाओं की तरफ मुडी और ‘ मैं जब भी अकेली होती हूँ तुम चुपके से आ जाते हो’ , फैली हुई हैं सपनों की बाहें आजा चल दें कहीं दूर’ और ‘अभी न जाओ छोड़ कर ये दिल अभी भरा नहीं’ जैसे कालजयी रोमांटिक गीत गीत सामने आये.

और जब जीवन से जुड़े गहन प्रश्नों की बात आयी तो साहिर का साहिर( जादू) ‘ ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानो, और ‘ये पाप है क्या और पुन्य है क्या रीतों पर धर्म के मोहरें हैं’ जैसी दार्शनिक और ‘ मन रे तू कहे न धीर धरे’ जैसी उदात्त शायरी और कभी ‘तार्रुफ रोग हो जाये तो उसको भूलना बेहतर , ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोडना अच्छा’ जैसे परिपक्व विचार के रूप में सामने आया.

हिन्दुस्तान की गंगा जमुनी तहजीब को जहाँ उनकी कलम ने ‘अल्लाह तेरो नाम इश्वर तेरो नाम’ और ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा’ जैसे अनमोल रतन दिए वहीँ सामाजिक सरोकारों और देश और काल की स्थिती पर जब व्यंगबाण चलने की बारी आयी तो साहिर ‘चीन ओ अरब हमारा, रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा’ और आसमां पे है खुदा और ज़मीं पे हम, आज कल वो इस तरफ देखता है कम’ लिखने से भी नहीं चूके. मानवीय रिश्तों की जिस कोमलता से साहिर ने ‘ मेरे भैय्या को संदेसा पहुँचाना रे चंदा तेरी जोत बढे’ लिख कर छुआ वो बेमिसाल है.

और उनके लिखे ‘ जब जब कृष्ण की बंसी बाजी निकली राधा घर से, जान अजान का भेद भुला के लोक लाज को तजके, बन बन भटकी जनक दुलारी पहन के प्रीत की माला, दर्शन जल की प्यासी मीरा पी गयी विष का प्याला और फिर अर्ज करी के लाज राखो राखो राखो’ और ‘इन्तहा ये के बंदे को खुदा करता है इश्क’ शब्दों ने फ़िल्मी कव्वाली को अमर बना दिया.