Wednesday, November 3, 2010

है गुलज़ार से गुलज़ार लफ़्ज़ों का चमन......

है गुजार से गुलज़ार लफ़्ज़ों का चमन...........

पिछले शनिवार जैसे ही में मेरी प्रिय किताबों की दुकान में घुसा तो सामने ही गुलज़ार की कविताओं की नई किताब ‘पन्द्रह पांच पचहत्तर’ पर नज़र पड़ी, आदत के मुताबिक जैसे ही मैंने बीच का एक पन्ना खोला तो पढ़ने को मिला

‘कार का इंजनबंद करके , और शीशे चढाके बारिश में, घने घने पेड़ों से ढंके ‘सेंट पौल रोड’ पर, आँखे मींच के बैठे रहो और कार की छत पर ताल सुनो बारिश की’

और मेरे मुंह से निकला अरे ये तो मेरा प्रिय शगल है बस सेंट पौल रोड की जगह मेरे शहर जयपुर की कोई रोड या फिर अन्य कोई जगह होती है अपनी कार के अंदर बैठ कर बारिश की सिम्फनी सुनने के लिए.

पूरी किताब घर लाकर पढ़ी तो पता चला की बारिश के कई और रूप भी यहाँ हैं जैसे ‘खुश्क था तो रस्ते में टिक टिक छतरी टेक के चलते थे, बारिश में आकाश पे छतरी टेक के टप टप चलते है’.

दरसल इस कविता संग्रह में बारिश ही नहीं प्रकृति के ढेर से कार्य कलापों का ऐसा आत्मीय और व्यापक मानवीयकरण गुलज़ार ने किया है की मन मन्त्र मुग्ध हो कार उससे जुड जाता है.यहाँ हर चीज़ बोलती और बात करती है. यहाँ कल माई चूल्हे में आग का पेड उगाती है, आसमान की कनपट्टीयां पकने लगती हैं, धूप का टुकड़ा लॉन में सहमे हुए परिंदे की तरह बैठ जाता है और कोहरे में लिपटी सिमटी इक वादी को सारा साल ही नजला रहता है.प्रकृति का ऐसा अनूठा मानवीयकरण सिर्फ ऐसा हे व्यक्ति कर सकता है जो प्रकृति को अपने में आत्मसात कर पाए और गुजार ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी कविताओं में जीते हैं.

लेकिन प्रकृति में रमने के साथ ही आम आदमी कभी गुलज़ार की आँखों से ओझल नहीं होता है, समय पर मेघ नहीं बरसे तो गुलज़ार का किसान कहता है ‘बीच डगर में कहाँ गए तुम काले मेघा?,कौन थे वो जो तागा बांध के नथनी में, और कहीं हींच के ले गए.

जब वैज्ञानिकों ने प्लूटो को नाकारा तो गुलज़ार को लगता है जैसे उनकी जेब में रखे नौ कंचों में से एक कहीं गायब हो गया है.

न्यूयॉर्क की मशीनी निर्जीवता और भारतीय आत्मीयता गुलज़ार के लफ़्ज़ों में कुछ यूँ शब्दों का रूप लेती है,

‘तुम्हारे शहर में गरचे ...

बहुत सब्ज़ा है, कितने खूबसूरत पेड हैं

पौदे हैं, फूलों से भरे हैं

कोई भंवरा मगर देखा नहीं भंवराए उन पर

तुम्हारे यहाँ तो दीवारों में सीलन भी नहीं है

दरारें ही नहीं पड़तीं !

हमारे यहाँ तो दस दिन के लिए परनाला गिरता है ,

तो उस दीवार में पीपल की डाली (कोंपल) फूट पड़ती है’

और दिल्ली की दोपहर का ऐसा शब्दचित्र की पढ़ने पर लगे की हम वो लम्हे खुद जी रहे हैं गुलज़ार के साथ.

‘सन्नाटों में लिपटी वो दोपहर कहाँ अब

धूप में आधी रात का सन्नाटा रहता था

लू से झुलसी दिल्ली की दोपहर में अक्सर.....

दो बजते-बजते जामुन वाला गुजरेगा

‘जामुन...ठन्डे ...काले जामुन..’

टोकरी में बड के पत्तों पर पानी छिडक के रखता था

बंद कमरों में ...

बच्चे कानी आँख से लेते लेते माँ को देखते थे,

वो करवट लेकर सों जाती थी’

पढ़ कर लगा अरे ये तो मेरे साथ भी बचपन में न जाने कितनी दोपहरों को होता था बस दिल्ली की जगह मेरा छोटा स क़स्बा होता था.

पूरी किताब ही ऐसे आत्मीय और मानवीय भावचित्रों से भरी है

जब किताब के आख़री पन्ने पर पहुंचा तो लगा कि,

‘है गुलज़ार से गुलज़ार लफ़्ज़ों का चमन,

गुन्चा दर् गुन्चा महक कुछ ख़ास है ‘

Sunday, October 24, 2010

साहिर का जादू

‘दुनिया ने तजुर्बात ओ हवादिस की शक्ल में , जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूँ मैं’ साहिर ने अपने दीवान ‘तल्खियाँ’ की शुरुआत में ये दो लाइनें लिखीं. ताजिंदगी हवादिस के ये तज़ुर्बे और तल्खियों की खराशें उनकी शायरी के साथ रहीं, और जब ये खराशें बहुत गहरे चुभतीं तो उनकी कलम ‘ जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं’ लिखती. ‘मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी यशोदा की हम जिंस राधा की बेटी, पयम्बर की उम्मत जुलेखा की बेटी, जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं’ जैसी बात साहिर के अलावा और कोई नहीं कह सकता था. इन तल्ख़ तजुर्बों ने ही उनसे लिखवाया ‘ ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल, ये मुनक्कश दर ओ दीवार ये मेहराब ये ताक, एक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक, मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे’. लेकिन वक्त के साथ जैसे जैसे तल्खियाँ कम हुईं, जिंदगी कुछ आसान हुई तो शायर की कलम खराशों की जगह कोमल कोमल भावनाओं की तरफ मुडी और ‘ मैं जब भी अकेली होती हूँ तुम चुपके से आ जाते हो’ , फैली हुई हैं सपनों की बाहें आजा चल दें कहीं दूर’ और ‘अभी न जाओ छोड़ कर ये दिल अभी भरा नहीं’ जैसे कालजयी रोमांटिक गीत गीत सामने आये.

और जब जीवन से जुड़े गहन प्रश्नों की बात आयी तो साहिर का साहिर( जादू) ‘ ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानो, और ‘ये पाप है क्या और पुन्य है क्या रीतों पर धर्म के मोहरें हैं’ जैसी दार्शनिक और ‘ मन रे तू कहे न धीर धरे’ जैसी उदात्त शायरी और कभी ‘तार्रुफ रोग हो जाये तो उसको भूलना बेहतर , ताल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोडना अच्छा’ जैसे परिपक्व विचार के रूप में सामने आया.

हिन्दुस्तान की गंगा जमुनी तहजीब को जहाँ उनकी कलम ने ‘अल्लाह तेरो नाम इश्वर तेरो नाम’ और ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा’ जैसे अनमोल रतन दिए वहीँ सामाजिक सरोकारों और देश और काल की स्थिती पर जब व्यंगबाण चलने की बारी आयी तो साहिर ‘चीन ओ अरब हमारा, रहने को घर नहीं है सारा जहाँ हमारा’ और आसमां पे है खुदा और ज़मीं पे हम, आज कल वो इस तरफ देखता है कम’ लिखने से भी नहीं चूके. मानवीय रिश्तों की जिस कोमलता से साहिर ने ‘ मेरे भैय्या को संदेसा पहुँचाना रे चंदा तेरी जोत बढे’ लिख कर छुआ वो बेमिसाल है.

और उनके लिखे ‘ जब जब कृष्ण की बंसी बाजी निकली राधा घर से, जान अजान का भेद भुला के लोक लाज को तजके, बन बन भटकी जनक दुलारी पहन के प्रीत की माला, दर्शन जल की प्यासी मीरा पी गयी विष का प्याला और फिर अर्ज करी के लाज राखो राखो राखो’ और ‘इन्तहा ये के बंदे को खुदा करता है इश्क’ शब्दों ने फ़िल्मी कव्वाली को अमर बना दिया.