है गुजार से गुलज़ार लफ़्ज़ों का चमन...........
पिछले शनिवार जैसे ही में मेरी प्रिय किताबों की दुकान में घुसा तो सामने ही गुलज़ार की कविताओं की नई किताब ‘पन्द्रह पांच पचहत्तर’ पर नज़र पड़ी, आदत के मुताबिक जैसे ही मैंने बीच का एक पन्ना खोला तो पढ़ने को मिला
‘कार का इंजनबंद करके , और शीशे चढाके बारिश में, घने घने पेड़ों से ढंके ‘सेंट पौल रोड’ पर, आँखे मींच के बैठे रहो और कार की छत पर ताल सुनो बारिश की’
और मेरे मुंह से निकला अरे ये तो मेरा प्रिय शगल है बस सेंट पौल रोड की जगह मेरे शहर जयपुर की कोई रोड या फिर अन्य कोई जगह होती है अपनी कार के अंदर बैठ कर बारिश की सिम्फनी सुनने के लिए.
पूरी किताब घर लाकर पढ़ी तो पता चला की बारिश के कई और रूप भी यहाँ हैं जैसे ‘खुश्क था तो रस्ते में टिक टिक छतरी टेक के चलते थे, बारिश में आकाश पे छतरी टेक के टप टप चलते है’.
दरसल इस कविता संग्रह में बारिश ही नहीं प्रकृति के ढेर से कार्य कलापों का ऐसा आत्मीय और व्यापक मानवीयकरण गुलज़ार ने किया है की मन मन्त्र मुग्ध हो कार उससे जुड जाता है.यहाँ हर चीज़ बोलती और बात करती है. यहाँ कल माई चूल्हे में आग का पेड उगाती है, आसमान की कनपट्टीयां पकने लगती हैं, धूप का टुकड़ा लॉन में सहमे हुए परिंदे की तरह बैठ जाता है और कोहरे में लिपटी सिमटी इक वादी को सारा साल ही नजला रहता है.प्रकृति का ऐसा अनूठा मानवीयकरण सिर्फ ऐसा हे व्यक्ति कर सकता है जो प्रकृति को अपने में आत्मसात कर पाए और गुजार ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी कविताओं में जीते हैं.
लेकिन प्रकृति में रमने के साथ ही आम आदमी कभी गुलज़ार की आँखों से ओझल नहीं होता है, समय पर मेघ नहीं बरसे तो गुलज़ार का किसान कहता है ‘बीच डगर में कहाँ गए तुम काले मेघा?,कौन थे वो जो तागा बांध के नथनी में, और कहीं हींच के ले गए.
जब वैज्ञानिकों ने प्लूटो को नाकारा तो गुलज़ार को लगता है जैसे उनकी जेब में रखे नौ कंचों में से एक कहीं गायब हो गया है.
न्यूयॉर्क की मशीनी निर्जीवता और भारतीय आत्मीयता गुलज़ार के लफ़्ज़ों में कुछ यूँ शब्दों का रूप लेती है,
‘तुम्हारे शहर में गरचे ...
बहुत सब्ज़ा है, कितने खूबसूरत पेड हैं
पौदे हैं, फूलों से भरे हैं
कोई भंवरा मगर देखा नहीं भंवराए उन पर
तुम्हारे यहाँ तो दीवारों में सीलन भी नहीं है
दरारें ही नहीं पड़तीं !
हमारे यहाँ तो दस दिन के लिए परनाला गिरता है ,
तो उस दीवार में पीपल की डाली (कोंपल) फूट पड़ती है’
और दिल्ली की दोपहर का ऐसा शब्दचित्र की पढ़ने पर लगे की हम वो लम्हे खुद जी रहे हैं गुलज़ार के साथ.
‘सन्नाटों में लिपटी वो दोपहर कहाँ अब
धूप में आधी रात का सन्नाटा रहता था
लू से झुलसी दिल्ली की दोपहर में अक्सर.....
दो बजते-बजते जामुन वाला गुजरेगा
‘जामुन...ठन्डे ...काले जामुन..’
टोकरी में बड के पत्तों पर पानी छिडक के रखता था
बंद कमरों में ...
बच्चे कानी आँख से लेते लेते माँ को देखते थे,
वो करवट लेकर सों जाती थी’
पढ़ कर लगा अरे ये तो मेरे साथ भी बचपन में न जाने कितनी दोपहरों को होता था बस दिल्ली की जगह मेरा छोटा स क़स्बा होता था.
पूरी किताब ही ऐसे आत्मीय और मानवीय भावचित्रों से भरी है
जब किताब के आख़री पन्ने पर पहुंचा तो लगा कि,
‘है गुलज़ार से गुलज़ार लफ़्ज़ों का चमन,
गुन्चा दर् गुन्चा महक कुछ ख़ास है ‘
Wednesday, November 3, 2010
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वाह! अगर समीक्षा इतनी दिलकश है तो किताब कैसी होगी!
ReplyDeleteबहरहाल, किताब की इतनी खूबसूरत झलक दिखाने के लिए शुक्रिया, शुक्रिया और शुक्रिया!
गज़ब,,,,आभार!!
ReplyDeleteसुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!
-समीर लाल 'समीर'
आपको भारत के महापर्व दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत खूब। पंद्रह पाँच पचहतर का साझा करने का धन्यवाद। साथ में दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं।
ReplyDeletegood post.diwali ki badhai.
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट,
ReplyDeleteदीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ|
दीपावली का त्यौहार आप, सभी मित्र जनो को परिवार को एवम् मित्रो को सुख,खुशी,सफलता एवम स्वस्थता का योग प्रदान करे -
ReplyDeleteइसी शुभकामनओ के साथ हार्दिक बधाई।
bahut sundar prastuti
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